Wednesday, February 3, 2010

सुना है तेरे शहर के .......


देवेश प्रताप

ये मन की एक कल्पना जो शब्दों का रूप ले लिया ।






सुना
है तेरे शहर के हर ज़र्रे ये शिकायत करते है
कि तुने नंगे पावं चलना छोड़ दिया

एक वक्त था तू जब चला करती थी
पेड़ ,पत्ती तेरे संग झुमा करते थे
फूल तेरी राहों में बिखर जाते थे
कांटे तुझको देख कर टूट जाते थे

कि तुने बागो में जाना छोड़ दिया॥


आइना भी तुझे देख कर इतरा जाता था
मौसम भी तुझसे मिलनों को तरस जाता था
सज-सवंर के जब तू चला करती थी
चाँद-तारे , ज़मी से जला करते थे

कि तुने सजना -सवंरना छोड़ दिया॥

तेरे छूने से पत्थर भी पिघल जाता था
लहरे तुझ को पाकर उछल जाती थी
हवाए भी तेरा इन्तजार करती थी

कि तुने घर से निकलना छोड़ दिया॥

4 comments:

  1. मनोभावो को सुन्दर शब्द हैं।बधाई।

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  2. सुना है तेरे शहर के हर ज़र्रे ये शिकायत करते है
    कि तुने नंगे पावं चलना छोड़ दिया ।
    ..बहुत नाजुक पंक्ति है.

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