Wednesday, March 3, 2010

काश यही जनसंख्या होती.....


विकास पाण्डेय

कॉलेज का पेपर चलने के कारण इस बार कि होली में हम [मै और देवेश ] घर नहीं जा पाए। होली के एक दिन पहले जब हम यहाँ के अपने वाले घर को जाने लगे। हम लोग दिल्ली नॉएडा के बोर्डर पर रहते हैं जहाँ से हमारा कॉलेज महज १५ मिनट कि दूरी पर है,यहाँ अपना घर होने पर भी घर से कॉलेज दूर होने के कारण हम घर पर नहीं रह पाते ,जब हम इलाहाबाद में रह कर पढाई करते थे फिर भी हम वहां अपने घर में नहीं रह पाते थे इलाहाबाद के एक कवि हैं शायद उन्होंने ठीक ही कहा था कि
"परिंदे भी नहीं रहते पराये आशियाने में,
हमारी तो उम्र गुज़री है किराये के मकानों
में"
पूरबी दिल्ली से पश्चिमी दिल्ली कि ओर जब हम चले तो हमने देखा कि आज वही रास्ता जहाँ गाड़ियों कि लम्बी कतार लगी रहती थी, सड़के खचा -खच लोगों से भरी होती थी,चारों तरफ शोर गुल,कोलाहल के अलावा कहीं कुछ न दिखाई देता था और न ही सुनाई। लेकिन आज ऐसा नहीं था, आज वही रास्ता एकदम शांत, दूषित वातावरण बिल्कुल शुद्ध हुआ, और वाहन खूब फैल कर चल रहे थे। मन में यही विचार आ रहा था कि अक्सर यही चर्चा होती है कि भारत को विकसित देश कि फेहरिस्त में लाना है,जिसके लिए सबसे पहले जनसंख्या को काम करना है,और आसाक्षरता को दूर भगाना है । आज के समय में जनसंख्या सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने आई है जिसके निवारण के लिए सरकार कि तरफ से प्रयास किये जा रहे हैं,लेकिन सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती जब तक जनता का पूरा सहयोग ना मिले।

आज से लगभग १५ साल पहले जब मै छोटा था और गर्मियों कि छुटियों में जब दिल्ली आया करता था । उस समय दिल्ली की ट्राफिक का बहुत ही बुरा हाल था, न कोई फ्ल्योवर और न ही मेट्रो जैसी अंतर्राष्ट्रीय सुविधा। लेकिन अब ठीक इसी के विपरीत आज इतने फ्ल्योवर , फूटओवर ब्रिज ,सबवे,मेट्रो बनने के बाद भी वही पुराना हाल वही रुला देने वाली ट्राफिक। कॉमनवेल्थ गेम के चलते दिल्ली का सर्वंगीद विकास तो हो रहा है लेकिन ट्राफिक का वही आलम है,जो पहले था।

सारी समस्या की जड़ जनसंख्या ही है, मैंने तो भैया सोच लिया है की "हम दो, हमारे दो'' ,लेकिन कहीं विवाह होने तक चीन की तरह हम दो और हमारे एक का नियम आ जाए तो कोई अचरज नहीं होगा क्यों???

इतना सोचते समझते आत्म मंथन करते जब अचानक समय से पहले घर पहुँच गए तब याद आया की आज तो होली की छूट्टी की वजह से भीड़ भाड़ नहीं थी,और इसी कारण हम जल्दी आ गए ,तब मन से यही आवाज़ आई की काश यही जनसंख्या होती ।

4 comments:

  1. भाई छुट्टी के दिंन लोग कहाँ दिखते हैं , बढ़िया लगा आपका संस्मरण पढ़कर ।

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  2. अज देवेश जी के ब्लाग पर यही पोस्ट पढी है। विचारणीय पोस्ट । धन्यवाद्

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  3. काश! ऐसा हो पाता!

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  4. bahut sahi observation kiya hai.dekhen aage aage kaisee sthiti hoti hai!

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Thanks