दोस्तों भावनो को व्यक्त करना सबसे जटिल होता है ऐसा मै समझता हु ये कुछ चार पंक्तिया जो मैंने लिखी है । शायद इन पंक्तियों वो परिपक्वता न हो लकिन भावनो का पूरा मेल है । ये मेरी पहेली कविता है जो सीधा इस ब्लॉग पैर मैंने लिखा है । इस पंक्ति की तीसरी और चौथी लाइन लिखते वक्त आँखे नम होगयी .................... इस कविता पर अपने विचार ज़रूर प्रकट करियेगा ।
गाँव की धूल मिटटी में बचपन को खिलते देखा है ।
आज शहर की गलियों में खुद को भटकते देखा है ॥
जब था आपनी माँ के पास उनके आँचल में सो कर देखा है ।
आज हु मै अपनी माँ से दूर उस आँचल के लिए तरसते देखा है ॥
बचपन के साथी से वादों की लकीर खीचते देखा है ।
आज उन्ही साथी को वो लकीरे मिटाते देखा है ॥
कभी किसी के प्यार में खुद को तड़पते देखा है ।
आज उसी के प्यार में खुद को गिरफ्त होते देखा है ॥
आईने में अपने आप को बदलते देखा है ।
दुनिया के इस रंगमंच पर ख़ुद को खेलते देखा है ॥
देवेश प्रताप
आज शहर की गलियों में खुद को भटकते देखा है ॥
जब था आपनी माँ के पास उनके आँचल में सो कर देखा है ।
आज हु मै अपनी माँ से दूर उस आँचल के लिए तरसते देखा है ॥
बचपन के साथी से वादों की लकीर खीचते देखा है ।
आज उन्ही साथी को वो लकीरे मिटाते देखा है ॥
कभी किसी के प्यार में खुद को तड़पते देखा है ।
आज उसी के प्यार में खुद को गिरफ्त होते देखा है ॥
आईने में अपने आप को बदलते देखा है ।
दुनिया के इस रंगमंच पर ख़ुद को खेलते देखा है ॥
देवेश प्रताप
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