Friday, January 22, 2010

खुद को बदलते देखा है .

देवेश प्रताप

दोस्तों भावनो को व्यक्त करना सबसे जटिल होता है ऐसा मै समझता हु ये कुछ चार पंक्तिया जो मैंने लिखी है । शायद इन पंक्तियों वो परिपक्वता न हो लकिन भावनो का पूरा मेल है । ये मेरी पहेली कविता है जो सीधा इस ब्लॉग पैर मैंने लिखा है । इस पंक्ति की तीसरी और चौथी लाइन लिखते वक्त आँखे नम होगयी .................... इस कविता पर अपने विचार ज़रूर प्रकट करियेगा ।



गाँव की धूल मिटटी में बचपन को खिलते देखा है
आज शहर की गलियों में खुद को भटकते देखा है

जब था आपनी माँ के पास उनके आँचल में सो कर देखा है
आज हु मै अपनी माँ से दूर उस आँचल के लिए तरसते देखा है

बचपन के साथी से वादों की लकीर खीचते देखा है
आज उन्ही साथी को वो लकीरे मिटाते देखा है

कभी किसी के प्यार में खुद को तड़पते देखा है
आज उसी के प्यार में खुद को गिरफ्त होते देखा है

आईने में अपने आप को बदलते देखा है
दुनिया के इस रंगमंच पर ख़ुद को खेलते देखा है

देवेश प्रताप

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